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आज अभी पुस्तक का किंडल संस्करण...
किंडल संस्करण
‘हमने कब कहा कि हम निर्माता हैं? मकान बनाने वाले और होते हैं, गिरानेवाले और। हम मकान गिराने वाले लोग हैं। पहले इस भुतहे खँडहर से तो नजात मिले। कैसे मोटे-मोटे खंभे हैं इसके, कितनी मोटी दीवारें! हर दीवार टेढ़ी है। टेढ़ी है मगर खड़ी है। ऊपर से नीचे तक फट गयी है मगर दीवार खड़ी है। अपनी उसी ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर। बहुत अजीब इमारत है ये, सदियों पुरानी, एक पिरामिड अपने ढंग की, पलीता लगाये बगैर गिरने की नहीं...डानामाइट का पलीता, समझीं चित्रा, डाइनामाइट का पलीता!’
तीनों तीन बिल्कुल अलग नाटक हैं पर संदर्भ एक होने से तीनों मिलकर उस बृहत्तर नाटक का एक संश्लिष्ट चित्र उपस्थिति करते हैं, जो कि आज का सामाजिक यथार्थ है, बहुरंगी, बहुस्तरीय।
प्रस्तुत नाटकों में उसी को तीन कोणों से देखने और समझने का प्रयास किया गया है।
चिन्दियों की एक झालर-जीवन-मूल्यों के उस संकट को रेखांकित करता है जो स्वाधीनता के इन पचीस वर्षों में बराबर गहरा ही होता गया है, जब कि नंदन, जैसे सच्चे और ईमानदार लोग, जिन्होंने आगे बढ़कर स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिया था और उसकी क़ीमत चुकायी थी, कूड़े की टोकरी में फिंक गये हैं और अब अपनी पुरानी यादों के ताबूत में बंद-बंद अपने दिन काट रहे हैं, जो उनकी आज़ादी की उम्मीदों का भी ताबूत है, और जहाँ दूसरों की कौन कहे कि अपना ही बेटा बाप के उन जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाता है।
शताब्दी-नयी पीढ़ी के विद्रोह का रूपायन है, जो विद्रोह तो हैं पर क्रान्ति नहीं है, क्योंकि वहाँ बस विस्फोट है, विवेक नहीं। दिशाहीन, अराजक विद्रोह, जो इसी मारे आत्महंता बन जाता है।
हम लोग-हमीं आलसी और कामचोर, ढोंगी और बड़बोले लोगों को संबोधित एक प्रहसन है, करुण प्रहसन, जो सब रेलगाड़ी के एक अँधेरे डिब्बे में बैठे हैं और आपस में झाँव-झाँव कर रहे हैं, जो सब अँधेरे की शिकायत करना जानते हैं पर रोशनी के लिए हाथ-पाँव हिलाने को तैयार नहीं।
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